यूरोपी य लोगों के बारे में तो आपने सुना ही होगा।
बंगाल की काश्तकार जो अपने खेतों में चावल की खेती करना चाहते थे उन्हें यूरोपियन नील बागान मालिक नील की खेती करने के लिए मजबूर किया करते थे ददनी परथा के तहत किसानों को मामूली अग्रिम रकम देकर करारनामा कर लिया जाता था जो बाजार भाव से काफी कम होता था अदालती भी यूरोपीय का ही पक्ष लेते थी नील विद्रोह की पहली घटना बंगाल के नदिया क्षेत्र में स्थित गोविंदपुर गांव में सितंबर 1859 में हुई।
स्थाई नेता दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी 1860 ईस्वी तक नील आंदोलन नदिया पावना खुलना ढाका मालदा दिनाजपुर आदि क्षेत्रों में फैल गया किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 ईस्वी में नील के सभी कारखाने बंद हो गए
नील विद्रोह को बंगाल की बुद्धिजीवियों प्रचार माध्यमों धर्म प्रचारकों तथा कहीं के छोटे जमीदारों और महाजनों का भी सहयोग प्राप्त हुआ बंगाल की बुद्धिजीवी वर्ग ने समाचार पत्रों में लेखों द्वारा तथा जन सभाओं के माध्यम से विद्रोह के प्रति अपने समर्थन को व्यक्त किया इसमें हिंदू पेट्रियट के संपादक हरिश्चंद्र मुखर्जी की विशेष भूमिका रही नील बागान ओके अत्याचार का खुला चित्र नील दर्पण के अंतर्गत दीनबंधु मित्रों ने किया
1860 ई मिनी लाइव के सुझाव पर एक सरकारी अधिसूचना जारी की। ईसाई मिशनरियों ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया था।